- शकील अख्तर
सामाजिक स्थिति मुसलमान की उन्हें कभी परेशान नहीं करती। हमेशा से ऐसी ही थी। लेकिन बढ़ी है दलित, पिछड़े, आदिवासी की। वह बर्दाश्त नहीं होती। संघ प्रमुख भागवत ने 2015 बिहार चुनाव से पहले आरक्षण के खिलाफ बयान दिया था ना। बुमरेंग कर गया। उल्टा असर। महागठबंधन जीत गया। उस समय नीतीश भी साथ थे। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले कहा कि संविधान बदलना है। फिर उल्टा पड़ गया।
14 अप्रैल सोमवार को जब अम्बेडकर जयंती मन रही होगी और मायावती भी उन्हें याद करते हुए कांग्रेस और राहुल गांधी को कोस रही होंगी तो पार्टी के लोगों को उनसे पूछना चाहिए कि डा. अम्बेडकर कभी संघ जनसंघ में क्यों नहीं रहे? और क्या यह सही नहीं है कि कांग्रेस ने उनको सम्मानपूर्वक संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया? और आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता के साथ क्या खुद डाक्टर अम्बेडकर ने यह नहीं कहा कि समिति में मुझसे ज्यादा योग्य लोग थे?
मायावती की पूरी राजनीति डा. अम्बेडकर के नाम पर है। लेकिन क्या उनके विचारों के हिसाब से जरा सा भी वे प्रतिगामी ताकतों से लड़ पा रही हैं? या दलितों के उद्धार के लिए बाबा साहब अम्बेडकर जिन ताकतों से जीवन भर संघर्ष करते रहे क्या वे उन्हीं दक्षिणपंथी ताकतों को मजबूत नहीं कर रही हैं?
सवाल बहुत सारे हैं। और अम्बेडकर जयंती वह समय है जब मायवती से यह सवाल पूछे जाना चाहिए। उनकी चुप्पी या सही जवाब से बचने के लिए राहुल गांधी पर सवाल उछाल देने से कुछ नहीं होगा।
शनिवार को आगरा में जिस तरह दलितों को गालियां दी गईं, तलवारें दिखाई गईं, बंदूकें उठाई गईं वह उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था के खतम हो जाने की तो एक मिसाल है। मगर दलितों के आत्मसम्मान को तोड़ने और उन्हें वापस उसी युग में पहुंचाने की कोशिश भी है जहां से बाबा साहब अम्बेडकर उन्हें बहुत मुश्किल से निकाल कर लाए हैं। संविधान देकर। वहीं संविधान जिसका प्रारूप (लिखने, ड्राफ्टिंग) बनाने के लिए कांग्रेस ने उन्हें इसका अध्यक्ष बनाया था।
समय बहुत खराब आ गया है। लोग सोचते रहे कि यह केवल मुस्लिम के खिलाफ हैं। मगर वह उन सबके खिलाफ हैं जो उन्हें वापस मनुवादी व्यवस्था में जाने से रोक रहा है। और यहां यह सबसे मजेदार बात है कि मुस्लिम को डायरेक्ट मनुवाद से कोई मतलब नहीं है। उस पर न लागू होता है और न वह किसी तरह प्रभावित।
मतलब जो भाजपा संघ का असली उद्देश्य है मुस्लिम उसके बीच में एक बहाना भर है। मुस्लिम इसलिए कि उसका नाम लेकर डर दिखाकर दलित पिछड़े आदिवासी के वोट लेना और चार सौ पार होते ही संविधान बदल देना। आरक्षण खतम कर देना।
सामाजिक न्याय को यह भारतीय नहीं है कहकर खारिज कर देना। वर्ण व्यवस्था लागू कर देना। 2024 के चुनाव से पहले कहा ही था। भाजपा के लोगों ने ही कि चार सौ से ज्यादा सीटें संविधान बदलने के लिए चाहिए।
सोचिए अभी जब संविधान लागू है। उनके अपने शब्दों में बहुत मजबूत सरकार है। डबल इंजन भी है फिर भी एक दलित सांसद के घर को 80 हजार करनी सेना की भीड़ दिन भर घेरे रखती है। खुली तलवारें, बंदूकें लहराई जाती रही हैं। गालियां दलित से लेकर पिछड़े सब को दी जाती रही हैं।
अखिलेश यादव की बहादुरी को सलाम करना होगा उन्होंने खुल कर इसका विरोध किया। कहा कि- यह सब भाजपा के लोग थे। इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है। दलितों में निश्चित रूप से इससे साहस आया होगा। अखिलेश किसी एक जाति समूह की बात नहीं कर रहे थे। वे दलित पिछड़ा अल्पसंख्यक सबकी बात कर रहे थे।
पीडीए। बहुत अच्छा नाम रखा है उन्होंने। पी पिछड़ा, डी दलित और ए अल्पसंख्यक। अस्सी प्रतिशत से ऊपर आबादी। इसी को तलवार बंदूकें गालियां, धमकियों के जरिए डराने की कोशिश थी। मगर अखिलेश के बहादुरी भरे बयान के बाद सब जगह एक निश्चिंतता आई है।
मायावती अप्रासांगिक हो जाएंगी। अभी मौका है समझ जाएं। कल अम्बेडकर जयंती पर वही साहस दिखाएं जो बीजेपी का शासन आने से पहले था। 'चढ़ गुंडन की छाती पर' वाला। 11 साल से पहले दलित शहर की मुख्य सड़क पर यह नारा लगाता था चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगाना हाथी पर।
वह केवल बंधी हुई मुठ्ठी के साथ हाथ उठाता था। अभी जैसा आगरा में हुआ वैसा बंदूक, तलवार, गालियां नहीं। मगर उस खाली लहराते हाथ से गुंडे, सामंत सब डर जाते थे। अम्बेडकर की संगठित रहो शक्ति की सीख से। मायावती उसी से चार बार मुख्यमंत्री बनीं।
आज उनका एक भी लोकसभा सदस्य नहीं है। विधायक केवल एक। वह भी अपनी
व्यक्तिगत सामर्थ्य की वजह से। दलित कोई विधायक भी नहीं। है तो डायलग फिल्मी। मगर खूब बोला जाता है और इस समय तो सही भी लगता है कि 'जो डर गया समझो वह मर गया!' मायावती ने अपने समाज के हौसले को मार दिया। जब हाथरस में दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। उसे मार दिया। रात में ही पुलिस ने पैट्रोल डालकर उसकी लाश जला दी। और इन सबके बाद पीड़िता के परिवार को ही परेशान किया जाने लगा। जैसा अभी आगरा में दलित सांसद रामजीलाल सुमन का घर घेर कर डर पैदा किया गया वैसा ही हाथरस में पीड़िता के परिवार के साथ किया गया।
मायावती नहीं गईं। राहुल, प्रियंका गए। और मायावती अपने घर में बैठकर ही राहुल और कांग्रेस को गालियां दिए जा रही हैं।
वह जो अलग-अलग तरीकों से सब कहते है कि नंबर सबका आएगा। तो वह आने लगा। पहले वे मुसलमानों के लिए आए, कुछ लोग बहुत खुश हुए। उस समय समझाया कि मुसलमान असली निशाना नहीं है। बहाना है। असली निशाना तो दलित आदिवासी पिछड़ा है। मुसलमान से क्या ले लेंगे? उनके पास क्या है ? लेना दलित आदिवासी पिछड़े से है। उसकी नौकरियां। उसके बच्चों का एडमिशन। वह कानून जो जातिगत गालियां देने से रोकता है। वह सामाजिक न्याय जो बराबरी का भाव देता है। वह स्वाभिमान जो जमीन पर नहीं साथ कुर्सी पर बिठा देता है।
लालू जी के लिए बिहार का दलित पिछड़ा यही तो कहता है। क्या दिया लालू जी ने? हिम्मत। डर खतम कर दिया। बराबरी से बैठता है। बात करता है। जितने लोकगीत लालू जी पर बने होंगे। जीते जी किसी भारतीय नेता पर नहीं। यही सब वापस लेना है।
सामाजिक स्थिति मुसलमान की उन्हें कभी परेशान नहीं करती। हमेशा से ऐसी ही थी। लेकिन बढ़ी है दलित, पिछड़े, आदिवासी की। वह बर्दाश्त नहीं होती। संघ प्रमुख भागवत ने 2015 बिहार चुनाव से पहले आरक्षण के खिलाफ बयान दिया था ना। बुमरेंग कर गया। उल्टा असर। महागठबंधन जीत गया। उस समय नीतीश भी साथ थे। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले कहा कि संविधान बदलना है। फिर उल्टा पड़ गया। 240 पर बीजेपी रुक गई। इसलिए मुसलमान को आगे किया जाता है। रोज नई कहानी लाई जाती है। लेकिन बार-बार सच सामने आ जाता है।
आगरा की तलवारें, बंदूकें इस बार केवल दलित पिछड़ों तक ही सीमित नहीं रहीं। चिंता ब्राह्मणों में भी दिखी। करनी सेना जिसने भाजपा सरकार के प्रश्रय में यह तांडव किया है वह राजपूतों की सेना मानी जाती है। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण बहुत पहले से कह रहा है कि उसे भी निशाने पर लिया जा रहा है। अब दलबदल कर भाजपा में मंत्री बन गए जीतीन प्रसाद ने तो ब्राह्मणों की रक्षा के लिए एक ब्रह्म सेना ही बनाई थी। आंकड़े दिए थे कितने ब्राह्मण मार डाले।
तो नफरत और विभाजन की राजनीति से बचेगा कोई नहीं। महिलाओं के खिलाफ तो जैसे हाईकोर्टों के फैसले आ रहे हैं वैसे इससे पहले कभी नहीं आए थे। निर्भया में पूरी सरकार लड़की परिवार के साथ थी। क्या मजाल की कोई गलत बोल जाए। आज तो कोर्ट कह रहा है कि बलात्कार में लड़की भी दोषी। यह माहौल का असर है। मीडिया तो गया ही काम से। ज्यूडिशरी भी चली गई।
कोई संविधानिक संस्था नहीं बची। संविधान में डा. अम्बेडकर ने ही इन संस्थाओं को बनाया था। अब उम्मीद जनता से ही है। उसे बचना भी है और देश व संविधान बचाना भी है। अम्बेडकर से प्रेरणा लेने का कल सोमवार 14 अप्रैल को एक अच्छा मौका है। क्योंकि नेता तो बहुत हुए मगर जितना संघर्ष अम्बेडकर को करना पड़ा उतना किसी को नहीं। और इसे दलित एवं मायावती से ज्यादा कौन समझ सकता है।.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)